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Monday, April 4, 2022



हाथी के दांत खाने के और तो दिखाने के और
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कनीना। बेचने व खाने में प्रयोग के लिए अलग अलग गेहूं की किस्में किसान पैंैदा कर रहा है। कुछ किसान तो खाने में बेहतर प्रकार की गेहूं तलाशते देखे गए। जब गेहूं की आवक शुरू होती है तो गेहूं की 283/306 आदि किस्में तलाशकर प्रयोग करते हैं। यहां तक कि बेेहतर गेहूं मानते हुए मध्यप्रदेश के गेहूं की तलाश की जाती है। ये गेहूं लाकर बेचने का धंधा पनपने लगा है।
  किसान धीरे धीरे जागरूक होने लगा है। जौ एवं चने की पैदावार लेनी बंद कर दी है परंतु कभी बेहतर किस्में गेहंू की उपजाने वाला किसान अब दो प्रकार की किस्में उगाने लगा है। जहां बेचने के लिए अधिक पैदावार देने वाली तो खाने में प्रयोग के लिए कम पैदावार वाली तथा बेहतर मानी जाने वाली किस्म प्रयोग करता है। बेचे जाने के लिए अधिक अन्न की चाहत होती है और किसान उर्वरक आदि डालकर अधिक अन्न पैदा करके मंडी में बेच देता है परंतु अपने परिवार के लिए अलग से गेहूं की कम पैदावार देने वाली तथा खाने में बेहतर किस्म उपजाने लगा है।
  जिला महेंद्रगढ़ के लोग बेहतर गेहूं की किस्में खाने के लिए रोहतक, रेवाड़ी, झज्जर आदि से मंगवा रहा है। कई जन मिलकर गेहूं की किस्म 283/306 आदि मंगवाते हैं। इन किस्मों को सामान्य किस्मों के मुकाबले दाम प्रति क्विंटल 500 से 700 रुपये अधिक मिलता है।
  कुछ वर्षों से गेहूं की बेहतर किस्में खाने के शौकीन अब मध्यप्रदेश से गेहूं मंगवाने लगे हैं। यहां तक कि एक धंधा पनपने लगा है कि मध्यप्रदेश के गेहूं मंगवाकर क्षेत्र में मिलने वाली गेहूं के दामों से एक हजार रुपये तक महंगा बेचा जाता है। बेशक उस गेहूं से कोई अतिरिक्त लाभ मिले या न मिले परंतु यह कहकर खाया जाता है कि यह साफ सुथरा है तथा इसकी चपाती रंग में सफेद बनती हैं। गृहणियां भी खोने में बेहतर किस्मों की ओर दौड़ती देखी गई।  
  मध्यप्रदेश से गेहूं मंगवाकर खाने वाले भीम सिंह ने बताया कि अधिक पैदावार देने वाले गेहूं की रोटियां एक-दो घंटों के बाद तोड़ पाना सरल नहीं हैं। बुजुर्ग एवं दांतों से कमजोर व्यक्ति इनका उपयोग नहीं कर सकता है। अब तो किसान भी खाने में दूसरा व बेचने में अपना गेहूं प्रयोग करने लगे हैं।
   किसानों से इस संबंध में बात की गई तो उन्होंने बताया कि देसी गेहूं की किस्म से पैदावार कम मिलती है परंतु खाने में स्वादिष्ट है। यही हालात गेहूं 283 की है। इनके कनीना क्षेत्र में नरम मिट्टी होने से गिरने की समस्या होती है और किसान नहीं उगाते हैं।







  पदाड़ी भी बन गई है आय का स्रोत
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कनीना।  सरसों की पदाड़ी एवं धांसे अब कीमती बन गए हैं। किसानों के लिए  अतिरिक्त आय का साधन बन गए हैं। किसान न तो धांसों को नष्ट करते हैं और न पदाड़ी को बिखेरते हैं।
  किसान अपने खेत से गेहूं की पैदावार से तो आय प्राप्त करते ही हैं साथ में तूड़ी को बेचकर भी अतिरिक्त आय ले रहे हैं। अब दूर दराज से लोग अपने गन्ने से गुड़ बनाने या ईंट भ_ा मालिक पदाड़ी को ईंट पकाने में काम में लेने लगे। कुछ लोग तो पदाड़ी का धंधा ही करने लग गए हैं। पदाड़ी को भारी मात्रा में इकट्ठा कर लिया जाता है और भ_ा मालिकों को बेचा जाता है।
     विगत पांच वर्षों से तो किसान सरसों की पैदावार अधिक कर रहे हैं और गेहूं की कम।   किसान राजेंद्र सिंह, सूबे सिंह, अजीत कुमार, कृष्ण कुमार ने बताया कि गेहूं के मुकाबले सरसों की मांग अधिक होने के कारण किसानों का रुझान ही सरसों उगाने की ओर बढ़ता जा रहा है।


हाईटेंशन की चपेट में आने से करीरा में मोर की मौत
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कनीना।  उपमंडल के गांव करीरा में सुबह बिजली के तारों की चपेट में आने की वजह से राष्ट्रीय पक्षी मोर की मौत हो गई। कांट्रेक्टर नवीन कनीना ने बताया कि मेरे घर के पास आज सुबह हाईटेंशन बिजली के तारों की चपेट में आने से राष्ट्रीय पक्षी मोर की मौत हो गई। ग्रामीण शिवलाल यादव,कैप्टन वीरेंद्र सिंह, जगदीश यादव, होशियार सिंह, ठेकेदार पवन कुमार, अनिल यादव ने कहा कि बिजली विभाग एवं हरियाणा सरकार से सभी ग्रामीण मांग करते हैं कि जितने भी हाईटेंशन खुली तारे हैं उनको जल्द से जल्द विभाग द्वारा इंसुलेटेड किया जाए ताकि भविष्य में इस तरह की घटनाओं से बचा जा सके।
  नवीन करीरा ने कहा कि गर्मी के मौसम में ग्रामीण घरों की छतों के ऊपर पक्षियों को पानी पीने के लिए सकोरे रख देते हैं। इस दौरान सभी को यह ध्यान में रखना चाहिए कि आसपास कोई हाईटेंशन बिजली के तारों की लाइन तो नहीं जा रही है।
फोटो कैप्शन 01: राष्ट्रीय पक्षी मोर का अंतिम संस्कार करते ग्रामीण।




466 विद्यार्थियों ने दी अंग्रेजी विषय की परीक्षा
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 कनीना। सोमवार को 466 विद्यार्थियों ने कनीना के दो परीक्षा केंद्रों पर अंग्रेजी की परीक्षा दी। राजकीय वरिष्ठ माध्यमिक विद्यालय में दसवीं के अंग्रेजी विषय  के लिए 2 परीक्षा केंद्र बनाए गए थे।
 परीक्षा केंद्र एक के केंद्र अधीक्षक डा मुंशी राम ने बताया कि उनके यहां 291 विद्यार्थियों ने परीक्षा देनी थी किंतु 4 अनुपस्थित रहे और 287 विद्यार्थियों ने अंग्रेजी की परीक्षा दी। परीक्षा शांतिपूर्वक चली। बार-बार उच्च अधिकारी और फ्लाइंग ने दौरा किया।
 दूसरे परीक्षा केंद्र के केंद्र अधीक्षक राजेश कुमार ककराला ने बताया कि उनके यहां 186 विद्यार्थियों ने परीक्षा देनी थी किंतु 7 विद्यार्थी अनुपस्थित मिले इस प्रकार कुल 179 विद्यार्थियों ने अंग्रेजी की परीक्षा दी। कनीना मंडी के केंद्र अधीक्षक योगेंद्र सिंह ने बताया कि उनके यहां सोमवार को केंद्र पर कोई परीक्षा नहीं हुई।


हवन से शुरुआत हुई यदुवंशी शिक्षा निकेतन कनीना
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 कनीना। यदुवंशी शिक्षा निकेतन कनीना की सोमवार को शुरुआत हो गई है। विद्यालय का शुभारंभ हवन यज्ञ से किया गया जिसमें विद्यालय के विद्यार्थी व शिक्षकों ने मंत्रों के साथ आहुति डालकर वातावरण सहित मानसिक शुद्धि की। हवन में यज्ञमान के रूप में यदुवंशी ग्रुप के वाइस चेयरमैन एडवोकेट करण सिंह यादव, चेयरपर्सन संगीता यादव तथा प्राचार्य पद पर दड़ोली आश्रम से आए स्वामी समर्पानंद ने अलंकृत किया।
यदुवंशी ग्रुप के चेयरमैन राव बहादुर सिंह तथा प्राचार्य योगेंद्र यादव ने भी यज्ञ में आहुति डाल सहभागिता निभाई। प्राचार्य योगेंद्र यादव ने अपने वक्तव्य में कहा किसी कार्य के शुभारंभ पर हवन यज्ञ का विशेष महत्व होता है। यदुवंशी शिक्षा निकेतन के निदेशक विजय सिंह यादव ने इस अवसर पर विद्यार्थियों के सफल भविष्य के लिए मंगल कामना की। उन्होंने कहा कि यहां यज्ञ भारतीय संस्कृति आध्यात्मिक भावना को बढ़ाता है तथा वैज्ञानिक दृष्टिकोण से ही सदैव लाभकारी होता है। वाइस चेयरमैन एडवोकेट कर्ण सिंह यादव, चेयरपर्सन संगीता यादव ने भी उद्बोधन में कहा कि संत और यज्ञ भारत देश की मूल पहचान होती है। इन्हीं के शुभ आशीर्वाद से भारत विश्व गुरु रहा है। यदुवंशी के चेयरमैन राव बहादुर सिंह ने आचार्य समर्पणानंद एवं यज्ञ में पधार गणमान्य लोगों का हार्दिक स्वागत किया और अपने संदेश में कहा कि यह मन से पूरे वातावरण शुद्धि होती है स्वास्थ्य लाभ होता है। हवन का मानव जीवन में बहुत महत्व होता है।
आचार्य समर्पणानंद ने यज्ञ के पश्चात अपने संदेश में कहा कि शिक्षण क्षेत्र में शिक्षकों की भूमिका अति महत्वपूर्ण होती है वह सभी निष्ठा अनुशासन का पालन करते हुए विद्यार्थियों का मार्गदर्शन करते हैं। यह सौभाग्य की बात है कि कम फीस में उत्तम शिक्षा मिले। विद्यालय का उद्देश्य आईआईटी, एनटीएससी,एनडीए, नीट जैसी प्रतियोगी परीक्षाओं का रहेगा।  
फोटो कैप्शन 02: हवन करते संपूर्णानंद तथा उपस्थित विभिन्न यदुवंशी पदाधिकारी।





मोटे अन्न की खेती







भूले किसान
-चना और जौ का रकबा 20 हेक्टेयर से अधिक नहीं
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 कनीना। किसान जौ एवं चने की खेती करना भूलते जा रहे हैं। गर्मियों के मौसम में जौ की रोटी, राबड़ी तथा धानी आदि बनाकर प्राकृतिक ठंडक प्राप्त करते हैं। अब न तो जौ की खेती होती और न राबड़ी एवं धानी। इसी प्रकार भूने हुये, टाट, छोल्ला, होला, चटनी, कुट्टी का जायका खत्म हो चुका है।  
  1986-87 तक कनीना क्षेत्र की करीब 33 हजार हेक्टेयर भूमि हजारों एकड़ में जौ की खेती तो हजारो हेक्टेयर पर चने की खेती की जाती थी। वैसे तो जौ न केवल पूजा आदि बल्कि हवन आदि में भी काम आता है। जब नवरात्रे चलते हैं तो जौ की विशेष मांग होती है। गेहूं-चना एवं जौ -चने की मिश्रित खेती की जाती थी। 1982 में स्ंिप्रकलर फव्वारा आया जिसके चलते चने की खेती घटती जा रही है और वर्तमान में तो चना अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।
जौ---
जौ को भी मोटे अन्न में शामिल किया है जो गंगा में डालने, पूजा अर्चना,हवन आदि में काम आता है वहीं पैदावार 40 मण प्रति हेक्टेयर तथा भाव 1500 रुपये क्विंटल तक होता है।   होली के पर्व पर जहां जौ को भूनकर पूरा परिवार चखता है और तत्पश्चात ही लावणी की शुरुआत होती आ रही है। एक जमाना था जब हर घर में जौ की खेती की जाती थी जिसे पूरी गर्मी आनंद से रोटी एवं अन्य रूपों में प्रयोग किया जाता था।  जौ की रोटी खाने के लिए या फिर धानी बनवाने के लिए दूसरे क्षेत्रों से जौ खरीदकर लाते हैं।
  जौ की रोटी प्रचलन था जो सेहत के लिए अति लाभकारी मानी जाती थी। राबड़ी चाव से खाते हैं वहीं जौ का प्रयोग बीयर आदि बनाने में लेते हैं। शरीर में ठंडक के लिए राबड़ी को गर्मियों में खाते हैं किंतु अब राबड़ी की बजाय चाय पर आ पहुंचा है।
 डा देवराज कृषि विस्तार अधिकारी का कहना है कि प्रतिवर्ष 50 हेक्टेयर से अधिक जौ नहीं उगाया जाता है।
चना-
तीन दशक पूर्व कनीना क्षेत्र में चने की पैदावार सर्वाधिक होती थी जो अब 10 हेक्टेयर से कम रह गई है। किसी एक या दो क्यारी में किसान चना उगाते हैं। दालों भावों में तेजी आ रही है। विगत 2014 में महज तीस हेक्टेयर में चना उगाया था। वर्ष 2015 में 52 हेक्टेयर पर चने की बीजाई की गई थी। 2015 से 2018 तक भी चने की महज 70 से 80 हेक्टेयर बिजाई की गई थी जो अब 10 हेक्टेयर पर सीमट कर रह गया है।
 कभी विवाह शादी में अवश्य लड्डू बनाए जाते थे किंतु अब जब किसी के शादी होती है तो लड्डू के लिए चने दूर दराज से लाने पड़ते हैं। पूर्व उप जिला शिक्षा अधिकारी रामानंद यादव आज भी चना उगाते हैं। वर्तमान में कुओं द्वारा सिंचाई की जाती है जो चने के लिए प्रतिकूल है। चना बहुत कम पानी में ही पैदावार देता है।
 बुजुर्ग राम सिंह, दुलीचंद, धनपती का कहना है कि कभी इस क्षेत्र में चने की खेती की जाती थी तो चने की सब्जी, चने की रोटी, मेसी रोटी, हरे चने की चटनी, खाटा का साग, कढ़ी, परांठे व कई अन्य सब्जियों में डालकर जायका लिया जाता था। जब तक चना सूख न जाता था तब तक चने को खाते रहते थे। यद्यपि चने का भाव बेहतर है किंतु पैदावार नहीं होती है किंतु जौ अब भी पैदावार अच्छी दे सकता है किंतु भाव अच्छे नहीं है जिसके चलते मांग घटती जा रही है। अब तो जौ चने का स्थान सरसों एवं गेहूं ने ले लिया है। यदि चने की पैदावार घटती गई तो मेसी रोटी, लड्डू संकट में पड़ जाएंगे। कनीना क्षेत्र में चना अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है।

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